Thursday, December 25, 2025

हिन्दुस्तान देश की तकनीक

जब पत्थर बोल उठे.... 

जब धरती बनी ड्रॉइंग बोर्ड: प्राचीन मंदिरों की अदृश्य इंजीनियरिंग!

हमारे पूर्वज कितने विशाल मंदिर बना सकते थे। लेकिन असली सवाल यह है – ये सब कैसे सम्भव हुआ? 

भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनाई गई इन तकनीकों को एक-एक करके समझते हैं।

जब भी कोई 80 टन का पत्थर 200 फीट ऊपर पहुँचता है, तो सबसे पहले सवाल उठता है – इसे ऊपर कैसे ले जाया गया? 

आधुनिक दुनिया का जवाब है: क्रेन। 

लेकिन 11वीं सदी में, तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में यह काम किया गया सिर्फ एक सीधे सिद्धांत के आधार पर – रैंप। 

कल्पना करिए, मंदिर के चारों ओर एक लंबा, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता हुआ रास्ता – लगभग करीब 4 मील लंबा! यह रैंप मिट्टी, पत्थर और मलबे से बनाया गया था, जिसका ढाल इतना आहिस्ता था कि  #हाथी या बैलों की टीम भारी पत्थर को खींचते हुए ऊपर चढ़ सकती थी।

 सबसे पहले, मंदिर की चारदीवारी के साथ-साथ मिट्टी को धीरे-धीरे ऊपर की ओर समतल करते हुए रैंप बनाया जाता। यह रैंप सीधा नहीं होता, बल्कि सर्पिल आकार में होता, ताकि पत्थर को घुमावदार रास्ते पर ले जाना आसान हो।

 रास्ते में लकड़ी के बड़े-बड़े स्लीपर बिछाए जाते, जिन पर लकड़ी के गोल ठूँठ (रोलर) रखे जाते। पत्थर को एक लकड़ी के समतल ढाँचे (स्लेज) पर रखा जाता, और यह पूरा सेटअप उन गोल रोलरों पर बैठता था। अब, हज़ारों मजदूर और दर्जनों हाथी इस स्लेज को खींचते हुए रैंप पर ऊपर ले जाते। आगे की ओर रस्सियाँ, पीछे की ओर रस्सियाँ, और बीच में गाइड – पूरा ऑपरेशन एक सैनिक टीम जितना संगठित होता।

माइक्रो-लेवल इंजीनियरिंगअब सवाल यह है – इतने भारी पत्थर को जमीन पर कैसे लुढ़काया जाता था?  सबसे पहली बात यह समझें कि घर्षण (friction) एक बहुत बड़ी समस्या थी। अगर 80 टन का पत्थर सीधे जमीन पर रखा जाता और खींचने की कोशिश की जाती, तो घिसाव इतना ज़्यादा होता कि कोई भी ताकत उसे हिलाने में सफल नहीं हो सकती थी।

लेकिन हमारे पूर्वज इस समस्या को बहुत चतुराई से हल करते थे। वे लकड़ी के मोटे ठूँठों को (roller) पत्थर के नीचे रखते थे। ये ठूँठ गोलाकार होते थे, इसलिए जब पत्थर को खींचा जाता, यह ठूँठ्स घूमते रहते और पत्थर को आगे बढ़ाते। ज्यों-ज्यों पत्थर आगे बढ़ता, पीछे छूट गए ठूँठों को फिर से आगे की ओर रख दिया जाता।

 यानी, एक बार 10-15 रोलर्स सेट करने के बाद, जैसे-जैसे पत्थर आगे बढ़ता, पिछले रोलर्स को निकालकर आगे की ओर रख दिया जाता – ठीक वैसे ही, जैसे आज के कॉन्वेयर बेल्ट काम करते हैं!

  खजुराहो और हम्पी जैसे क्षेत्रों में, जहाँ दूरी ज़्यादा थी, रोलर्स को चर्बी या तेल से चिकना भी किया जाता था, ताकि फिसलना और रोलिंग दोनों संभव हो सकें। 

यह वास्तव में एक hybrid technique थी – आधी friction-reduction, आधी rolling !

पत्थर को सीधे रोलर्स पर नहीं रखा जाता। उसके लिए एक मजबूत लकड़ी का फ्रेम बनाया जाता, जिसे "स्लेज" कहते हैं। यह स्लेज एक आयताकार संरचना होती – मोटी लकड़ी के बीम को आड़े-तिरछे जोड़कर बनाई गई। पत्थर इसी स्लेज के ऊपर बैठता था, और स्लेज ही रोलर्स पर घूमता था।स्लेज बनाने में ज्यामिति का बहुत महत्वपूर्ण उपयोग होता था। 

पत्थर का वज़न पूरे स्लेज में समान रूप से वितरित होना चाहिए, नहीं तो एक ओर से ज़्यादा दबाव पड़ेगा और स्लेज टेढ़ा हो जाएगा, फिर खिसक सकता है। इसलिए, पत्थर के गुरुत्व केंद्र को पहले से ही गणना करके स्लेज तैयार किया जाता। 

मंदिरों में ऐसे बहुत सारे अवशेष मिले हैं जो दिखाते हैं कि स्लेज के तल में एक विशेष U-आकार की नाली होती थी, जो पत्थर को गिरने से बचाती थी और उसे सीधा रखती थी।

जब पत्थर रैंप पर ऊपर चढ़कर अपनी अंतिम मंज़िल पर पहुँचता था, तो अब का काम बहुत नाज़ुक हो जाता। यहाँ सिर्फ खींचना-तानना काफ़ी नहीं था; पत्थर को बिल्कुल सही जगह पर, बिल्कुल सही कोण पर बैठाना पड़ता था। यहाँ रस्सियों और उत्तोलक (lever) का उपयोग होता।

लीवर का सिद्धांत बहुत सरल है – एक लंबी लकड़ी को एक फुलक्रम (pivot point) पर रखो, फिर एक ओर से धक्का दो, दूसरी ओर भारी वस्तु ऊपर उठती है। 

बृहदेश्वर मंदिर में, जब वह 80 टन की शिला अपनी अंतिम जगह पर बैठने वाली थी, तो दर्जनों लकड़ी के लीवर एक साथ उपयोग किए जाते थे। हर लीवर को एक सटीक स्थान पर रखा जाता, और फिर सैकड़ों कारीगर एक साथ धक्का देते। रस्सियाँ दोनों ओर से जुड़ी होती थीं – कुछ पत्थर को खींचने के लिए, कुछ गाइड करने के लिए, और कुछ अगर कोई चीज़ गलत हो तो तुरंत पत्थर को सँभालने के लिए। 

महाबलीपुरम के "रथ": ऊर्ध्व खनन की सफलताअब चलते हैं दक्षिण के एक और विस्मयकारी उदाहरण की ओर – महाबलीपुरम  में पल्लव वंश द्वारा बनाए गए "रथ" । 

ये "रथ" दरअसल पूरे मंदिर नहीं, बल्कि एकल ग्रेनाइट शिलाखंड से तराशी गई #वास्तुकला-कृतियाँ हैं। सबसे प्रसिद्ध धर्मराज रथ, अर्जुन रथ, और गणेश रथ कहलाते हैं। इन "रथों" को बनाते समय ऊर्ध्व खनन तकनीक (vertical excavation) का उपयोग किया गया – जो एलोरा के कैलाश मंदिर के बिल्कुल समान सिद्धांत पर काम करती है, बस पैमाना छोटा है।

 #कारीगरों ने सबसे पहले ग्रेनाइट की विशाल शिला के ऊपरी हिस्से पर मंदिर का आकार चिन्हित किया। फिर, ऊपर से शुरू करके, धीरे-धीरे नीचे की ओर खोदते हुए, पूरी शिला से अनावश्यक पत्थर निकाल दिए। अंत में, जो रहा, वही मंदिर बन गया।

यहाँ कोई गलती अक्षम्य होती। एक बार अगर एक स्तंभ गलत कोण पर काट दिया जाता, या छत का कोई हिस्सा आवश्यकता से अधिक काट दिया जाता, तो पूरी शिला बर्बाद हो जाती। इसलिए, हर कट से पहले बहुत विचार-विमर्श होता। 

प्राचीन कारीगर रस्सी, खूंटी और चूने/रंग की मदद से ज़मीन पर वर्गाकार या आयताकार खानों वाला जाल (grid pattern) बनाते थे – इसे ही #वास्तु‑पुरुष मंडल या मंडल ज्यामिति कहा जाता है। इसी पर हर स्तंभ, दीवार, गलियारा, दरवाज़ा, और शिखर का सेंटर पॉइंट मार्क होता था, फिर उसी के अनुसार पत्थर बैठाए जाते थे।

अजंता की 30 गुफाएँ, जो घोड़े की नाल के आकार की घाटी में पहाड़ी की दीवार को काटकर बनाई गई थीं। यहाँ तकनीक ऊर्ध्व नहीं, बल्कि क्षैतिज (horizontal) थी।

 कारीगरों ने पहाड़ी की ऊँची दीवार पर एक प्रवेश द्वार बनाया, फिर धीरे-धीरे अंदर की ओर खुदाई करते हुए गुफा को चौड़ा किया। अंदर से ही स्तंभ निकाले गए, #बुद्ध की प्रतिमाएँ तराशी गईं, और दीवारों पर जातक कथाओं की चित्रकारी की गई।

अजंता की गुफाओं में सबसे दिलचस्प बात यह है कि गुफा के अंदर पानी का निकास कितनी सतर्कता से डिज़ाइन किया गया था। जब भारी बारिश होती, वर्षा का पानी बिना गुफा को नुकसान पहुँचाए, नीचे की ओर प्रवाहित हो सके, इसके लिए छोटी-छोटी नालियों को गुफा के अंदर ही काटा गया। 

 गुफाओं में चैत्य (बुद्ध के पूजास्थल) बनाए गए, जहाँ एक विशाल स्तूप पत्थर से ही तराशी गई। यह स्तूप लगभग 20-30 फीट ऊँचा होता, और पूरी तरह एक ही पत्थर की गुफा के भीतर उकेरी गई। 

अब सबसे अद्भुत उदाहरण – एलोरा की 34 गुफाएँ, जिनमें कैलाश मंदिर सबसे प्रसिद्ध है।
 
कैलाश मंदिर का निर्माण  में कारीगरों ने एक घाटी में खड़ी विशाल चट्टान को लिया और उसे ऊपर से नीचे खोदते-खोदते एक पूर्ण मंदिर परिसर निकाल दिया।

 एक पहाड़ की चोटी से शुरू करके, कारीगरों ने धीरे-धीरे अनावश्यक पत्थर को निकाला और जो रहा, उसी में से:96 फीट ऊँचा शिखर,विशाल प्रार्थना कक्ष, देवताओं की मूर्तियाँ, जटिल नक्काशी वाली दीवारें,भूमिगत भंडारण कक्ष, सीढ़ियाँ और गलियारे सब कुछ एक ही पत्थर से, कोई जोड़ नहीं, कोई अलग ब्लॉक नहीं।

आप सोचेंगे कि हज़ारों साल पहले शायद कोई जादुई तकनीक रही होगी। लेकिन असल में, औज़ार बहुत साधारण थे:लोहे की छेनी – विभिन्न चौड़ाई और आकार में, तेज़ धार वाले पत्थर के मुगदर– आमतौर पर 2-4 किलोग्राम का, पकड़ने के लिए लकड़ी की पकड़ के साथ पीतल या ताँबे की छेनी – नरम पत्थरों के लिए लकड़ी के उपकरण। 

 धातु विज्ञान उस समय बहुत उन्नत था। भारत में उच्च-कार्बन इस्पात  का उत्पादन होता था – वह दक्षिण भारत की "उत्ज पत्तन" जैसी जगहों से इस्पात  का निर्यात होता था, और यूरोप तक जाता था! 

इसी से छेनियाँ बनाई जाती थीं, जिनकी धार आज के स्टील की छेनियों के बराबर तीक्ष्ण थी।एक बार छेनी तेज़ हो गई, तो बाकी काम धैर्य और कौशल का था।

कारीगर दिन में 8-10 घंटे लगातार काम करते, हर दिन थोड़ा-थोड़ा पत्थर निकालते, और महीने-महीने, साल-साल इस प्रक्रिया को दोहराते। 

कहा जाता है कि कुछ मंदिरों में संगीत-वाद्य यंत्र बजाते-बजाते काम होता था, जिससे रिदम और मनोबल दोनों बने रहते!