Sunday, September 13, 2015

मनुः के पुत्र हो... अजेय हो

मनु पुत्र हो तुम.......

सर्वश्रेष्ठता की हद से आगे तक सर्वश्रेष्ठ हो फिर क्यों दर-दर भटक रहे हो । संसाधन के रूप में उसने तुम्हे वो मस्तिष्क दे दिया जो कुछ भी उपजा सकता है.... अरे तुम्हारे पास उत्थान और पतन वाली वो सोच है जो तुम्हे किसी भी हद तक जुनूनी बना देती है फिर यह आस क्यों कि कुछ बेहतर "मिल" जाए...

कुछ भी तो "अप्राप्य" नहीं है "तुम्हारे" लिए... फिर क्यों शुरू करने से डरते हो वो "संघर्ष" जो तुम्हे ले जाएगा "सफलता" की चौखट पर ।

कर्म को अन्तःप्रेरणा से करने वाले हम इंसान अच्छे और बुरे का फर्क जानकर श्रेष्ठतम को ग्रहण करते है । समययोक्त निर्णय लेकर हम उसे पूर्णरूप से लागू करते है और वह हमारा जीवन विधान बन जाता है । दूसरों के लिए हितकारी या समाजकंटक ये सोच ही तो है जो बनाती है ।

अच्छे रहो.... बनो...ताकि और अच्छे उपजा पाओ विचार और मनुःपुत्र ।

Satyen Sonu©

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Wednesday, September 9, 2015

रोज़ की डायरी... पन्ना 8 सितम्बर 2015 का

आज की रात का रतजगा बड़ा अद्भुत होने वाला था यही सोचकर हम निकल पड़े थे ।

रात के धुंधलके में अब हल्की हल्की ठण्ड दस्तक देने लगी है । रात 11:15 पर निकले तो रुख सीधा किया पहाड़ों की वादियों की और ।

लोहार्गल ।। पहाड़ों के बीच फैला एक तीर्थ जिसको विश्व मानचित्र पर बहुत अच्छी पहचान मिली है उस आदियुग से जब महाभारत का महायुद्ध हुआ था ।

पहाड़ों की गोद में बसा यह तीर्थ हम नवलगढ़ वासियों के लिए आस्था का स्थल, पिकनिक करने की जगह और अपने पूर्वजो की अस्थियां तक विसर्जित करने का स्थान है । सोमवती अमावस्या हो या मालकेतु की 24 कोसीय परिक्रमा श्रद्धालुओं की भीड़ यहाँ पर लगी ही रहती है । वर्तमान में परिक्रमा की वजह से काफी भीड़ भाड़ थी तो हम चल पड़े आगे कर्कोटक तीर्थ ( स्थानीय बोलचाल में कहते है "किरोड़ी" ) की और ।

किरोड़ी .... मशहूर है अपने गर्म और ठन्डे पानी के प्राकृतिक कुण्डों की वजह से । चारो और फैले ताड़ और खजूर के पेड़ों की सघन छाया रात के माहौल को रूककर महसूस करने को मजबूर करती है पर चारों और फैला श्रद्धालुओं का जमावाडे से सरोबार और दुकानों से फैली वह रौनक जो पता नहीं कहाँ से आ गई है गोगानवमी से शुरू होने वाली इस 24कोसीय परिक्रमा के दौरान ।

रात है पर अधनींदे लोगों के इस हुजूम में कुछ लोग शायद जग से रहे है और सोच रहे होंगे इस दृश्य, इस माहौल, इस वातावरण के बारे में जिसे मेला कहते है.... मिलने का नाम मेला है और यहाँ हर कोई मिलता है... विविध भाषाई संस्कृति, राजस्थान से लेकर हरियाणा और सुदूर मुम्बई से आये ये आराध्य को अपनी श्रद्धा समर्पित करने आते है ।

कुछ मूलभूत सुविधाओं का अभाव है जिसे उपलब्ध अगर करवा दिया जाए तो यह तीर्थ सालभर महका रहने वाला पर्यटन स्थल बन जाए ।

खैर हम तो फिर चल पड़े आगे पर पता नही क्या मन किया की घुम्मकड़ी को विराम दिया ।

काले डामर की बनी यह सड़क और काले स्याह अंधे से अँधेरे से ढलती यह रात.... सर्द होने वाली आगे आती रातों का यह सफ़र जारी रहेग अनवरत

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Sunday, September 6, 2015

अंतर्मन में मेरा दखल...

बहुत शान्ति । जिसे पता नहीं कैसे हासिल कर पाते है हम ..... उस अन्तर्द्वन्द को सुलाकर जो हमेशा चलायमान रहा है इस मष्तिष्क के भीतर जो तब भी कार्यशील रहता है जब हम शारीरिक रूप से सो रहे होते है ।

वह दूर तक शांत साम्राज्य उस भगवान् का जिसने हम सब को जन्म दिया मनुष्य बना कर । इस योनि में यदाकदा कोशिश करते है कई इंसान होने की पर फिर भी हम बने रह जाते भीड़ के हर उस आदमी की तरह जिसके चारों और फैले है आदमी ही आदमी ।

सोचते हैं हम ना जाने क्यों बहुत अन्दर फैली विस्तृत आत्मा की अंदर तक फ़ैल चुकी गहराइयों का । यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे आप पानी में अपने विंब को देखते और महसूस करते है... कंकड़ मारने पर चित्र का लहरों में बदलना और फिर शांत होने उस निर्मल जल पर फिर बनते हुए देखना खुद की साकार होती छवि को ।

द्वंद यह है की क्यों और कैसे बदला जाए खुद को और बना जाए मालिक उस मष्तिष्क का और लिखा जाए एक नया पन्ना की जिसे आने वालि पीढ़ियाँ कहेंगी । "इतिहास"

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