Sunday, September 6, 2015

अंतर्मन में मेरा दखल...

बहुत शान्ति । जिसे पता नहीं कैसे हासिल कर पाते है हम ..... उस अन्तर्द्वन्द को सुलाकर जो हमेशा चलायमान रहा है इस मष्तिष्क के भीतर जो तब भी कार्यशील रहता है जब हम शारीरिक रूप से सो रहे होते है ।

वह दूर तक शांत साम्राज्य उस भगवान् का जिसने हम सब को जन्म दिया मनुष्य बना कर । इस योनि में यदाकदा कोशिश करते है कई इंसान होने की पर फिर भी हम बने रह जाते भीड़ के हर उस आदमी की तरह जिसके चारों और फैले है आदमी ही आदमी ।

सोचते हैं हम ना जाने क्यों बहुत अन्दर फैली विस्तृत आत्मा की अंदर तक फ़ैल चुकी गहराइयों का । यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे आप पानी में अपने विंब को देखते और महसूस करते है... कंकड़ मारने पर चित्र का लहरों में बदलना और फिर शांत होने उस निर्मल जल पर फिर बनते हुए देखना खुद की साकार होती छवि को ।

द्वंद यह है की क्यों और कैसे बदला जाए खुद को और बना जाए मालिक उस मष्तिष्क का और लिखा जाए एक नया पन्ना की जिसे आने वालि पीढ़ियाँ कहेंगी । "इतिहास"

Satyen Sonu©

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