कुछ बातें उस पूनम के चाँद को देखकर भी याद आती है जो अमावस्या के बाद आज फिर पूरे शबाब पर होती चांदनी के साथ सिर्फ और सिर्फ आज की रात के लिए है क्योंकि कल से तो उसे फिर एक बार फिर उसी अमावस्या को लेकर आना है ।
मेरे शहर की गलियों में फैले उजियारो के बीच मुझे याद आया कि अक्सर लोग इन्ही रास्तों से गुजरना गर्व समझते थे क्योंकि तब चरम पर अनुशासन और आपसी समझ आधारित ज मानवता थी । सब एक दूसरे के हिताकांक्षी थे और आपसी भाईचारे के लिए जाने जाते थे तो आप अपने साथ ही नहीं बल्कि एक और एक ग्यारह वाली कहावत में ही विश्वास करते थे ।
तब भले ही चारों और ना तो इतनी सड़कें थी और ना ही कोई दिनभर गुजरने वाले वाहनों की खड़ी बेतरतीब भीड़ अगर कुछ था तो वह कुछेक तांगे या गिने चुने टैक्सी ड्राइवर थे जो धुँवा उड़ाती, सजी धजी टैक्सियों के साथ मेरे शहर में आने वाली कोयले की छुक-छुक गाड़ी से उतरने वाले लोगों का स्वागत मुस्कुराहट के साथ बड़ी आत्मियता से करते थे जबकि उस समय भाड़े के नाम के दो रुपए का लाल नोट मिला तो संतोष कर लेते थे ।
शहर के गोल चक्कर से अन्दर अल सुबह उतरना जहां देस आने की खुशी दिखाते थे वहीं रात को नौ बजे रेलवे स्टेशन जाना मानो अकल्पनीय था । शहर तब बन चुका था लेकिन यहां सब कुछ थक भी लेकिन हर बड़ा काम पास के बड़े शहर से तालुक रखता था ।
मैं तब पहली बार निकला था अपने संघर्षों से दो चार होने जिसे मैंने खुद चुना था ।