Monday, July 27, 2015

पृथ्वीसिंह

कल रात एक ऐसे जिंदादिल शख्स से मुलाक़ात हुई जिसमे समय से लड़कर जीतने का अद्भुत जूनून दिखा ।

जीरो से शुरू कर मानवता को ध्येय रखकर खुद को ना सिर्फ स्थापित किया बल्कि अपने पिता से विरासत में मिले गुण ईमानदारी, अनुशासन और सैदेव दूसरों की सहायता में तत्पर रहना इन्होने अपने आपमें आत्मसात किया है ।

यह कहानी नहीं हकीकत है और एक मिसाल है उन लोगों के लिए जो साधनों और भाग्य के भरोसे बैठकर कामयाबी की मंजिल की राह पर चलने से डरते है ।

पृथ्वीसिंह जी की जिन्दादिली को शब्द देने की कोशिश कर रहा हूँ ।

सलाम है उनके जज्बे को जिससे हर कोई प्रेरणा लेकर अपने भाग्य को बदल सकता है ।

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संस्कृत का एक बड़ा प्रसिद्द श्लोक है की

उद्यमेन ही सिध्यन्ते न च कार्य मनोरथ ।
न सुषुप्त सिंघ्स्य मुखे मृगा पर्विश्यन्ति ।।

अर्थात शेर जंगल का राजा है पर उसे भी अपना शिकार करने के लिए परिश्रम करना पडता है । हिरण स्वयम उसके मुंह तक नहीं आ जाते ।

एक पुलिस अधिकारी पिता की संतान जिसने बचपन से अनुशासन और मेहनत को विरासत में पाया वही जानता है की कार्य कैसे करना है ।