अध्यात्म जगत में वे ही गुरु हो सकते हैं, जो मनुष्य को ऊपर उठा कर आत्मिक उज्ज्वलता को प्रकाशित कर सकें। इसलिए गुरु वे ही हो सकते हैं, जो महाकाल हैं। अन्य कोई गुरु नहीं हो सकता। और इस आत्मिक स्तर पर गुरु होने के लिए उन्हें साधना का प्रत्येक अंग, प्रत्येक प्रत्यंग, प्रत्येक क्षुद्र, वृहत अभ्यास सभी कुछ सीखना होगा, जानना होगा और सिखलाने की योग्यता रखनी होगी। इसे केवल महाकाल ही कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। जिन्होंने अपने जीवत्व को साधना द्वारा उन्नत कर शिवत्व में संस्थापित किया है, वे ही काल हैं। और जो स्वयं करते हैं तथा दूसरे को उसके बारे में दिग्दर्शन कराने का सामथ्र्य रखते हैं, वे ही महाकाल हैं। अतीत में महाकाल शिव आए थे और आए थे कृष्ण। गुरु होने के लिए महाकाल होना होगा, साधना जगत में सूक्ष्म विवेचन कर सभी चीजों की जानकारी रखनी होगी। केवल इतना ही नहीं, उन्हें शास्त्र-ज्ञान अर्जन करने के लिए जिन सभी भाषाओं को जानने की आवश्यकता है, उन्हें भी जानना होगा। अर्थात् केवल साधना सिखलाने के लिए ही नहीं, वरन् व्यावहारिक जगत के लिए भी सम्पूर्ण तथा चरम शास्त्र ज्ञान भी उनमें रहना होगा और तभी वे अध्यात्म जगत के गुरु की श्रेणी में आएंगे। जो साधना अच्छी जानते हैं, दूसरे की सहायता भी कर सकते हैं, किन्तु उनमें पांडित्य नहीं है, शास्त्र ज्ञान नहीं है, भाषा ज्ञान नहीं है तो वे आध्यात्मिक जगत के भी गुरु हो नहीं सकेंगे। गुरु अगर कहता है कि ‘वैसा करोगे, जैसा मैं कहूंगा’ तो उसे यह भी तो बताना होगा कि शिष्य वैसा क्यों करे। इसी के लिए शास्त्र की उपमा की आवश्यकता पड़ती है।
शास्त्र क्या है? शास्त्र कह कर एक मोटी पुस्तक दिखला दी, ऐसा नहीं है। ‘शासनात् तारयेत् यस्तु स: शास्त्र: परिकीर्तित:।’ जो मनुष्य पर शासन करता है तथा उसके छुटकारे का, मुक्ति का पथ दिखला देता है, उसे शास्त्र कहते हैं। इसलिए गुरु को शास्त्र पंडित होना होगा, अन्यथा वे मानव जाति को ठीक विषय का ज्ञान नहीं दे सकेंगे। ‘शास्त्र’ माने वह वेद, जो मनुष्य को शासन द्वारा रास्ता दिखाए। शास्त्र माने जो मनुष्य को सत् पथ पर चलाए, जिस पथ पर चलने से मनुष्य को ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होगी और कल्याण होगा।
अब यह शासन क्या है? ‘शासन’ यानी जिसे शास्त्र में अनुशासन कहा गया है। ‘हितार्थे शासनम् इति अनुशासनम्।’ कल्याण के लिए जितना शासन किया जाता है, उस विशेष शासन को कहा जाता है अनुशासन। अध्यात्म गुरु को जिस तरह अपनी साधना स्वयं जाननी होगी और दूसरे को उसे बताने का सामथ्र्य रखना होगा, उसी तरह शासन करने का सामथ्र्य रखना होगा। साथ ही पे्रम, ममता, आशीर्वाद करने का भी सामथ्र्य
रखना होगा।
केवल शासन ही किया, प्रेम नहीं किया तो ऐसा नहीं चलेगा। एक साथ दोनों ही चाहिए। और शासन की मात्रा कभी भी प्रेम की सीमा का उल्लंघन न करने पाए। तभी होंगे वे आध्यात्मिक जगत गुरु। ये सारे गुण ईश्वरीय सत्ता में ही हो सकते हैं।